माँ
अपने अंदर उन्हें ही
पाता हूं
अंदर कहीं गहरे में
प्रेम उभर रहा है
दिल में एक चमक सी
है और
मेरी नसों में दौड़
रही हैं
उनकी सांसे और उनके
आदर्श
मेरा यह शरीर
महसूस करता है
उन्हें
अपने संपूर्ण में।
उनकी दैदीप्यमान उपस्थिति
उसके व्यक्तित्व से प्रेम
निकलता है और
चारों और फैलकर
मुझे अपने अंदर
समाहित कर रहा है
अपने दैदीप्यमान उपस्थिति से
मुझे भी आलोकित कर रहा है।
उनकी पवित्र
खुशबू
मैं जब बैठती हूं
उनकी नेत्रों को देखता हूं
मेरे नेत्रों में आ
जाती है
अनायास ही एक चमक
मेरे भीतर बढ़ती है
उनकी पवित्र महक
शांति की भावना
मेरे दिलो-दिमाग में
भरती है।
मेरे भीतर कहीं गहरे में
प्रतिक्षण महसूस होती है
उसकी उपस्थिति हैं कमरे में,
चुपचाप मुझसे कुछ कहती है
मेरे भीतर कहीं गहरे में।
कोई प्रत्युत्तर
नहीं है
मैं उसे नहीं जानता
मैंने उसे देखा
नहीं;
एक अनुभूति से धोखा
होता है
पवित्र मंत्रोच्चार
सा सुनाई देता है
मैं उसे ढूंढ़ता
हूं, कोई प्रत्युत्तर नहीं है।
अवनी कुमार कर्ण
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